समाज में जब भी परिवर्त्तन की स्थिति बनती है तो उस प्रक्रिया में सबसे ज्यादा वो प्रभावित होते हैं जो लोग अपनी अधिकांश जरूरतों के लिए किसी और पर निर्भर होते हैं जैसे कि स्त्रियाँ, बच्चे और बुजुर्ग। घर, कार्य स्थल, समाज और देश में परिवार के इन तीन सदस्यों को अपनी सामाजिक, आर्थिक, शारीरिक और भावनात्मक आवश्यकताओं के लिए किसी न किसी रूप में अनन्योश्रित होना पड़ता है। स्त्रियाँ घर में अपनी जगह तो कभी अपनी महत्ता बनाए रखने के लिए अपने पति, अपने सास-ससुर और कभी-कभी अपने बच्चों तक पर निर्भर रहती हैं। कार्य स्थल पर अपनी वाज़िब प्रोन्नति के लिए भी अपने बॉस तो कभी सहकर्मियों का सहारा लेती हुई देखी जा सकती हैं। समाज में अपनी हैसियत और पहचान के लिए समाज के धार्मिक और राजनीतिक ढाँचों में इन्हें अपनी "आइडेंटिटी" तलाश करनी पड़ती है। और अपने ही देश में अपने अधिकारों और हक़ के लिए क़ानून और कानून के तराजू के दोनों पलड़ों के बीच पेंडुलम की भाँति इन्हें झूलना भी पड़ता है। बच्चों के परिपेक्ष्य में अगर बात की जाए तो बच्चे घर में माँ-बाप, दादा-दादी या घर की हेल्पर्स, स्कूल के लिए स्कूल वैन वाले पर, शिक्षकों पर, समाज में ऊँच-नीच, जाति-पाति, अमीरी-गरीबी आदि मापदंडों पर एवं देश में अपना स्थान जानने के लिए दमघोंटू परीक्षाओं और उन में हासिल हुए अंकों पर निर्भर रहना होता है। और यही स्थिति कमोबेश बुजुर्गों की भी है।
भारत का मिडिल क्लास कई बोझ ले कर जीता है। अपने से अगले वर्ग की तरफ बढ़ने की जद्दोजहद और स्वयं से नीचे वर्ग से खुद को बेहतर समझने के भंवर में यह वर्ग हमेशा किसी न किसी उलझन का शिकार नज़र आता है। बाजारवाद, स्त्रीवाद, दैहिक स्वतंत्रता, आर्थिक उन्नयन, बेरोक-टोक ज़िंदगी जीने की चाहत और नई पीढ़ी के द्वारा परिवार और शादी की संस्था को मिलने वाली चुनौतियों ने मिडिल क्लास को और भी भ्रमित किया है। दिल्ली जैसे मेट्रो शहरों में एक सम्मानित ज़िंदगी जीने के लिए अब विवाह योग्य जोड़ों के लिए नौकरी में होना पहली प्राथमिकता बन गई है क्योंकि महँगाई, बच्चों की अच्छी शिक्षा, बुजुर्गों की दवा और अपनी इच्छाओं की कीमत दो व्यक्तियों की कमाई के समक्ष बौनी नज़र आती है। पति-पत्नी की कमाई में से एक की कमाई कभी होम लोन, कभी कार लोन, कभी एजुकेशन लोन तो कभी कोई और लोन चुकाने में चली जाती है। जिस हिसाब से महँगाई बढ़ती है उस हिसाब से आमदनी नहीं बढ़ती लेकिन जरूरतें और इच्छाएँ हर गणितीय समीकरण को तोड़ कर आगे बढ़ जाती हैं और उत्पन्न कर जाती हैं एक असमंजस की स्थिति। और इस स्थिति को मेरे शब्दों में कहा जाए तो यही कहा जाएगा - बोथ पैरेंट्स वर्किंग सिन्ड्रोम (बी पी डब्ल्यू एस) ।
बोथ पैरेंट्स वर्किंग सिन्ड्रोम (बी पी डब्ल्यू एस) प्रायः मिडिल क्लास परिवार में देखने को मिलता है जहाँ 8 बजे सुबह माँ-बाप ऑफिस के लिए, बच्चे स्कूल के लिए, बुजुर्ग किसी क्लब, पुस्तकालय या पार्क के लिए निकल जाते हैं। बच्चे फिर दिन भर के लिए किसी दाई या घर में दादा-दादी हुए तो उनके सहारे पलने-बढ़ने लगते हैं लेकिन जिनकी जरूरत सबसे ज्यादा होती है वो ही कहीं देखे नहीं जाते हैं। इस तरह के माहौल में पले बच्चों के लिए माँ-बाप का आस पास नहीं होना एक "न्यू नार्मल" बन जाता है और घर पर जब माँ-बाप होते हैं तो उस वक़्त को काटने के लिए वो फिर फोन, वीडियो गेम या किसी अन्य हॉबी का सहारा लेना शुरू कर देते हैं। बच्चे इस क्रम में एकाकीपन को एक सामान्य प्रक्रिया के रूप में देखने लगते हैं और भीड़ या दोस्तों की टोली में खुद को जोड़ नहीं पाते और आगे चल कर यह भीड़ जो कभी प्रतिस्पर्धा बन जाती है, कभी सामाजिक प्राणी की जरूरत बन जाती है तो कभी सबसे बड़ी हक़ीक़त बन जाती है तो बच्चों में हीन भावना घर करने लगती है। शरू में सबको यह सामान्य लगता है लेकिन जब बच्चा हर बात पर माँ-बाप से अपनी बात ना कहकर छिपाने लगे, झूठ बोलने लगे, किसी गलत आदत या संगति का शिकार होने लगे तो बात चिंताजनक प्रतीत होने लगती है। माँ-बाप के होते हुए बिना माँ-बाप के सप्ताह के 5 से 6 दिन लगातार 12 से 15 घंटे किसी और के साथ काटना ही बच्चों को माँ-बाप से अलग करने लगती है। काम के बोझ के कारण माँ-बाप दोनों के लिए पारिवारिक और सामजिक जिम्मेदारियों को निभाना कठिन होने लगता है। आपस में तनाव बढ़ने लगते हैं और स्थिति अलग होने तक आ पहुँचती है और इन सब में इनके आक्रोश और दुर्व्यवहार का शिकार होना पड़ता है बच्चों को। बच्चे दूसरे बच्चों को घूमते देखते हैं, कुछ नया करते देखते हैं तो उन में भी वो सब अपने माँ-बाप के साथ करने की इच्छा जागृत होती है लेकिन समय की कमी, अरूचि, काम के तनाव की वजह से पर्याप्त समाधान नहीं पाकर बच्चे स्वयं के माँ-बाप को आँकना शुरू करते हैं, उन्हें कमतर समझने लगते हैं और उनके प्रति आदर भाव भी कम कर देते हैं जो एक परिवार के रूप में सबसे बड़ी हार मानी जा सकती है। ऐसे पैरेंट्स मानते हैं कि अभी कमा लेते हैं और बाद में सब इच्छाएँ पूरी कर लेंगें लेकिन वो बाद कभी नहीं आता। समय बदलने के साथ इच्छाएँ बदल जाती है और पिछली इच्छा की जगह कोई नई इच्छा उत्पन्न हो जाती है और उनको पूरा करने की तमाम मापदंड भी बदल जाते है। उदाहरण के तौर पर आज से 20 साल पहले कश्मीर देखने की इच्छा और अब कश्मीर देखने की इच्छा में ढेरों फर्क है। आज कश्मीर में 20 साल पहले जैसे बर्फ नहीं पड़ती, आज कश्मीर एयरपोर्ट पर क्लियर्स के लिए 2 घंटे लाइन में खड़े रहने पड़ता है, डल झील तब इतनी गन्दी और सिकुड़ी नहीं हुआ करती थी। बच्चों की इच्छाएँ बारिश की बूँद की तरह होती हैं यदि उनको समय रहते सही मिटटी मिले तो नया पौधा उग सकता है और उन्हें यूँ ही छोड़ दिया जाए तो धूप निकलते ही भाप बन कर कहीं उड़ जाएँगे और पीछे बच जाएगा- शून्य।
समाज में जो पहले से ही किसी और पर आश्रित है उन्हें और आश्रित नहीं आज़ाद बनाने की कवायद होनी चाहिए। माँ-बाप का अपने बच्चों के लिए कमाना कहीं से गलत नहीं है लेकिन जिसके लिए कमा रहे हैं उसी के लिए समय ना निकाल पाना, उनसे बात ना कर पाना, उनके साथ खेल ना पाना, उनकी तकलीफों और जरूरतों को ना समझ पाना बेहद गलत है। अगर दो व्यक्तियों की कमाई अपने ही बच्चे के चेहरे पर मुस्कान ना ला सके तो कमाई में कोई कमी तो जरूर है। पैसे कमाने से ज्यादा जरूरी है बच्चे कमाना और इस में सिर्फ एक ही चीज़ का "इन्वेस्टमेंट" है - समय का। बच्चों के समय को अपना समय दीजिए, वर्ना यह समय निकल गया तो कोई समय इसे वापस नहीं ला सकता।
सलिल सरोज
कार्यकारी अधिकारी
लोक सभा सचिवालय
संसद भवन, नई दिल्ली
एक टिप्पणी भेजें
एक टिप्पणी भेजें