अखबारों की जगह ले ली कम्प्यूटर व्यवसायिकता में दम तोड़ती हिंदी पत्रकारिता
✍️संवाददाता
शिव कुमार प्रजापति
शाहगंज जौनपुर
वह आज का ही ऐतिहासिक दिन था 30 मई , जब देश का पहला हिन्दी अखबार 'उदंत मार्तण्ड' प्रकाशित हुआ। इसीलिए इसी दिन को हिन्दी पत्रकारिता दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। हिन्दी के पहले अखबार के प्रकाशन को 193 वर्ष हो गए हैं। इस अवधि में कई समाचार-पत्र शुरू हुए, उनमें से कई बन्द भी हुए, लेकिन उस समय शुरू हुआ हिन्दी पत्रकारिता का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। लेकिन, *यह अपना रंगरूप बदल दिया है और अब उद्देश्य पत्रकारिता से ज्यादा व्यावसायिक हो गया है*।इसी लिऐ आज उच्च पदो पर बैठे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को आसानी से घुडकी देते हुऐ जरा से भी नहीं हिचकते की, कलम सोच समझ कर चलाना तुम्हारे पास कलम है तो मेरे पास भी कलम है!इन्ही शब्द के आगे पत्रकारिता जगत कलम के सिपाही नतमस्तक होते नजर आते हैं ।
उदंत मार्तण्ड का का प्रकाशन 30 मई, 1826 ई. में कोलकाता से एक साप्ताहिक पत्र के रूप में शुरू हुआ था। पंडित जुगलकिशोर सुकुल ने इसकी शुरुआत की। उस समय समय अंग्रेजी, फारसी और बांग्ला में तो कई अखबार पत्र निकलते थे, किन्तु हिन्दी में कोई समाचार पत्र तब नहीं निकलता था। पुस्तकाकार में छपने वाले इस पत्र के 79 अंक ही प्रकाशित हो पाए। ...और करीब डेढ़ साल बाद ही दिसंबर 1827 में इसका प्रकाशन बंद करना पड़ा।
उस समय बिना किसी मदद के अखबार निकालना लगभग मुश्किल ही था, अत: आर्थिक अभावों के कारण यह पत्र अपने प्रकाशन को नियमित नहीं रख सका। जब इसका प्रकाशन बंद हुआ, तब अंतिम अंक में प्रकाशित पंक्तियां काफी मार्मिक थीं...
आज दिवस लौं उग चुक्यौ मार्तण्ड उदन्त
अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अब अन्त।
हिंदी प्रिंट पत्रकारिता आज किस मोड़ पर खड़ी है, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। उसे अपनी जमात के लोगों से तो लोहा लेना पड़ रहा है साथ ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चुनौतियां भी उसके सामने हैं। ऐसे में यह काम और मुश्किल हो जाता है।
एक बात और हिंदी पत्रकारिता ने जिस 'शीर्ष' को स्पर्श किया था, वह बात अब कहीं नजर नहीं आती। इसकी तीन वजह हो लगती है , पहली अखबारों की अंधी दौड़, दूसरा व्यावसायिक दृष्टिकोण और तीसरी समर्पण की भावना का अभाव। पहले अखबार समाज का दर्पण माने जाते थे, पत्रकारिता मिशन होती थी, लेकिन अब इस पर पूरी तरह से व्यावसायिकता हावी है। इसी लिऐ विभागो की जी हुजूरू में ही भला समझते हैं
दरअसल, अब के संपादकों की कलम मालिकों के हाथ से चलती। हिन्दी पत्रकारिता आज कहां है, इस पर निश्चित ही गंभीरता से सोच-विचार करने की जरूरत है।
हिन्दी पत्रकारिता क्या थी ,क्या हो गई, और क्या होगा अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी
एक कलम और उसके पहरेदारों ने पत्रकारिता के अब तक के इस सफर में सबसे खास भूमिका निभाई आज के दौर में मीडिया, इंटरनेट के जरिए जो वैश्वीकरण हो रहा है निश्चित रूप से पत्रकारिता को तो अमरत्व प्रदान कर रहा है। लेकिन अब उस कलम की जगह टाइपराइटर और की-बोर्ड ने ले रखी है हमें एक बात हमेशा ध्यान देना चाहिए कि संस्थान छोटे बड़े हो सकते पर पत्रकारिता से जुड़ें पत्रकार नही..
अखबारों की जगह कम्प्यूटर और मोबाइल स्क्रीन ने ले ली है, भले ही कुछ न बदला हो ,भले ही सब कुछ आगे बढ़ रहा हो, लेकिन इस दौड़ में अगर कुछ पीछे छूट गया है तो वह है... दम तोड़ती पत्रकारिता की कलम की नोक जिसने कभी इसी पत्रकारिता को जन्म दिया था... लेखन को जन्म दिया था... मॉडर्न वैश्वीकरण के इस हाईटेक युग में वह कलम आज प्रौढ़ हो गई है और दम तोड़ रही है। यह प्रश्न बहुत जटिल है कि पत्रकारिता में क्यो दम भर रहा व्यावसायिकता ?जिसके कारण आम जनमानस के जनसंदेश दबते नजर आ रहें हैं
*यूथ कार्नर न्यूज की तरफ से हिंदी पत्रकारिता दिवस की सभी पत्रकार बंधुओं को बहुत बहुत शुभकामनाएं*
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